Saturday, March 21, 2015

मैं दुबारा इस देश में पैदा होना चाहता हूं ताकि इसकी सेवा कर सकूं.....



                                      23 मार्च शहीद दिवस          


भगत सिंह
देश के स्वतंत्रता संग्राम में हजारों ऐसे नौजवान भी थे, जिन्होंने ताकत के बल पर आजादी दिलाने की ठानी और क्रांतिकारी कहलाए। भारत में जब भी क्रांतिकारियों का नाम लिया जाता है तो पहला नाम शहीद भगत सिंह का आता है।
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम सरदारनी विद्यावती कौर था। उनके पिता और उनके दो चाचा अजीत सिंह व स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लडाई का एक हिस्सा थे। जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ उस समय ही उनके पिता व चाचा को जेल से रिहा किया गया था। भगत सिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें भगत सिंह कहा जाने लगा। एक देशभक्त परिवार में जन्म लेने की वजह से ही भगत सिंह को देशभक्ति का पाठ विरासत के तौर पर मिला।
सुखदेव -
सुखदेव थापर का जन्म पंजाब के शहर लायलपुर में श्री रामलाल थापर व श्रीमती रल्ली देवी के घर विक्रमी सम्वत 1964 के फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष सप्तमी तदनुसार 15 मई 1907 को अपरान्ह पौने ग्यारह बजे हुआ था। जन्म से तीन माह पूर्व ही पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनके ताऊ अचिन्तराम ने इनका पालन पोषण करने में इनकी माता को पूर्ण सहयोग किया। सुखदेव की तायी जी ने भी इन्हें अपने पुत्र की तरह पाला। इन्होंने भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवं भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था।
लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिये जब योजना बनी तो साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का पूरा साथ दिया था। यही नहीं, सन् 1928 में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में राजनीतिक बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में बढ-चढकर भाग भी लिया था। गान्धी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में इन्होंने एक खुला खत गान्धी के नाम अंग्रेजी में लिखा था जिसमें इन्होंने महात्मा जी से कुछ गम्भीर प्रश्न किये थे।
राजगुरु -
शिवराम हरि राजगुरु का जन्म भाद्रपद के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी सम्वत् 1965 (विक्रमी) तदनुसार सन् 1908 में पुणे जिला के खेडा गाँव में हुआ था। 6 वर्ष की आयु में पिता का निधन हो जाने से बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी विद्याध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने आ गये थे। इन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंन्थों तथा वेदो का अध्ययन तो किया ही लघु सिद्धान्त कौमुदी जैसा क्लिष्ट ग्रन्थ बहुत कम आयु में कण्ठस्थ कर लिया था। इन्हें कसरत (व्यायाम) का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध-शैली के बडे प्रशंसक थे।
वाराणसी में विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु का सम्पर्क अनेक क्रान्तिकारियों से हुआ। चन्द्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से तत्काल जुड़ गये। आजाद की पार्टी के अन्दर इन्हें रघुनाथ के छद्म-नाम से जाना जाता थाय राजगुरु के नाम से नहीं। पण्डित चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ दास आदि क्रान्तिकारी इनके अभिन्न मित्र थे। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज भी थे। साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव का पूरा साथ दिया था जबकि चन्द्रशेखर आजाद ने छाया की भाँति इन तीनों को सामरिक सुरक्षा प्रदान की थी।
23 मार्च और आखिरी के साढ़े तीन घंटे..
23 मार्च का दिन उन आम दिनों की तरह ही शुरू हुआ जब सुबह के समय राजनीतिक बंदियों को उनके बैरक से बाहर निकाला जाता था। आम तौर पर वे दिन भर बाहर रहते थे और सूरज ढलने के बाद वापस अपने बैरकों में चले जाते थे। लेकिन आज वार्डन चरत सिंह शाम करीब चार बजे ही सभी कैदियों को अंदर जाने को कह रहा था। सभी हैरान थे, आज इतनी जल्दी क्यों। पहले तो वार्डन की डांट के बावजूद सूर्यास्त के काफी देर बाद तक वे बाहर रहते थे। लेकिन आज वह आवाज काफी कठोर और दृढ़ थी। उन्होंने यह नहीं बताया कि क्यों? बस इतना कहा, ऊपर से ऑर्डर है।
चरत सिंह द्वारा क्रांतिकारियों के प्रति नरमी और माता-पिता की तरह देखभाल उन्हें दिल तक छू गई थी। वे सभी उसकी इज्जत करते थे। इसलिए बिना किसी बहस के सभी आम दिनों से चार घंटे पहले ही अपने-अपने बैरकों में चले गए। लेकिन सभी कौतूहल से सलाखों के पीछे से झांक रहे थे। तभी उन्होंने देखा बरकत नाई एक के बाद कोठरियों में जा रहा था और बता रहा था कि आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा।
हमेशा की तरह मुस्कुराने वाला बरकत आज काफी उदास था। सभी कैदी खामोश थे, कोई कुछ भी बात नहीं कर पा रहा था। सभी अपनी कोठरियों के बाहर से जाते रास्ते की ओर देख रहे थे। वे उम्मीद कर रहे थे कि शायद इसी रास्ते से भगत सिंह और उनके साथी गुजरेंगे।
फांसी के दो घंटे पहले भगत सिंह के वकील मेहता को उनसे मिलने की इजाजत मिल गई। उन्होंने अपने मुवक्किल की आखिरी इच्छा जानने की दरखास्त की थी और उसे मान लिया गया। भगत सिंह अपनी कोठरी में ऐसे आगे-पीछे घूम रहे थे जैसे कि पिंजरे में कोई शेर घूम रहा हो। उन्होंने मेहता का मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे उनके लिए दि रेवोल्यूशनरी लेनिन नाम की किताब लाए हैं। भगत सिंह ने मेहता से इस किताब को लाने का अनुरोध किया था। जब मेहता ने उन्हें किताब दी, वे बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया, जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास वक्त ज्यादा नहीं है। मेहता ने उनसे पूछा कि क्या वे देश को कोई संदेश देना चाहेंगे, अपनी निगाहें किताब से बिना हटाए भगत सिंह ने कहा, मेरे दो नारे उन तक पहुंचाएं..इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। मेहता ने भगत सिंह से पूछा आज तुम कैसे हो? उन्होंने कहा, हमेशा की तरह खुश हूं। मेहता ने फिर पूछा, तुम्हें किसी चीज की इच्छा है? भगत सिंह ने कहा, हां मैं दुबारा इस देश में पैदा होना चाहता हूं ताकि इसकी सेवा कर सकूं। भगत ने कहा, सुभाष चंद्र बोस ने जो रुचि उनके मुकदमे में दिखाई उसके लिए धन्यवाद करें।
11 घंटे पहले लिया गया फांसी का फैसला

अंग्रेज सरकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी देने का मतलब अच्छी तरह से जानती थी। उसे पता था कि इन तीनों नौजवानों को फांसी देने से पूरा देश उठ खड़ा होगा, लेकिन उसे ये भी पता था कि अगर ये तीनों जिंदा रहे तो जेल में बैठे-बैठे ही क क्रांति का बिगुल बजा देंगे, इसलिए भगत सिंह को फांसी देने के लिए पूरा सीक्रेट प्लान तैयार किया गया और 23 मार्च यानी फांसी के दिन से सिर्फ 11 घंटे पहले ये तय किया गया कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को कब फांसी देनी है। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को उसी दिन फांसी की खबर दी, जिस दिन उन्हें फांसी पर चढ़ाया जाना था।
मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारियों ने भगत सिंह और उनके साथियों को बताया कि उन्हें फांसी का समय 11 घंटा घटाकर कल सुबह छह बजे की बजाए आज साम सात बजे कर दिया गया है। भगत सिंह ने मुश्किल से किताब के कुछ पन्ने ही पढ़े थे। उन्होंने कहा, क्या आप मुझे एक अध्याय पढ़ने का भी वक्त नहीं देंगे? बदले में अधिकारी ने उनसे फांसी के तख्ते की तरफ चलने को कहा। एक-एक करके तीनों का वजन किया गया। फिर वे नहाए और कपडे पहने। वार्डन चतर सिंह ने भगत सिंह के कान में कहा, वाहे गुरु से प्रार्थना कर ले। वे हंसे और कहा, मैंने पूरी जिंदगी में भगवान को कभी याद नहीं किया, बल्कि दुखों और गरीबों की वजह से कोसा जरूर हूं। अगर अब मैं उनसे माफी मांगूगा तो वे कहेंगे कि यह डरपोक है जो माफी चाहता है क्योंकि इसका अंत करीब आ गया है।
तीनों के हाथ बंधे थे और वे संतरियों के पीछे एक-दूसरे से ठिठोली करते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे। उन्होंने फिर गाना शुरू कर दिया-कभी वो दिन भी आएगा कि जब आजाद हम होंगे, ये अपनी ही जमीं होगी ये अपना आसमां होगा। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बाकी यही नाम-ओ-निशां होगा।श्
जेल की घडी में साढ़े छह बज रहे थे। कैदियों ने थोडी दूरी पर, भारी जूतों की आवाज और जाने-पहचाने गीत, सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है की आवाज सुनी। उन्होंने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, माई रंग दे मेरा बसंती चोला और इसके बाद वहां इंकलाब जिंदाबाद और हिंदुस्तान आजाद हो के नारे लगने लगे। सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे।
तीनों को फांसी के तख्ते तक ले जाया गया। भगत सिंह बीच में थे। तीनों से आखिरी इच्छा पूछी गई तो भगत सिंह ने कहा वे आखिरी बार दोनों साथियों से गले लगना चाहते हैं और ऐसा ही हुआ। फिर तीनों ने रस्सी को चूमा और अपने गले में खुद पहन लिए। फिर उनके हाथ-पैर बांध दिए गए।
शाम 7.33 बजे दी गई फांसी

जल्लाद ने ठीक शाम 7.33 बजे रस्सी खींच दी और उनके पैरों के नीचे से तख्ती हटा दी गई। उनके दुर्बल शरीर काफी देर तक सूली पर लटकते रहे फिर उन्हें नीचे उतारा और जांच के बाद डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।सब कुछ शांत हो चुका था। फांसी के बाद चरत सिंह वार्ड की तरफ आया और फूट-फूट कर रोने लगा। उसने अपनी तीस साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थीं, लेकिन किसी को भी हंसते-मुस्कराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा कि उन तीनों ने किया था।
23 मार्च 1931 को शाम 7.30 बजे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई थी। भगत सिंह की उम्र वक्त महज 23 साल थी, वो हमेशा कहा करते थे,‘हमारी शहादत में ही हमारी जीत है।’ भगत सिंह ने महात्मा गांधी का सम्मान किया, लेकिन कई मामलों पर उनके मतभेद थे ये बात सभी जानते हैं, लेकिन 23 साल के भगत सिंह उस समय अंग्रेजों के लिए महात्मा गांधी से भी बड़ी चुनौती बन गये थे। भगत सिंह ने बिना कोई पद यात्रा किए, बिना हजारों लोगों को जुटाए सिर्फ अपने और चंद साथियों के दम अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर दिया था। शायद यही कारण रहा कि 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहे थे। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले -ठीक है अब चलो।
रात के अंधेरे में शवों के साथ वहशियाना सलूक
अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी खबर को बहुत गुप्त रखा था, लेकिन फिर भी ये खबर फैल गई और लाहौर जेल के बाहर लोग जमा होने लगे। अंग्रेज सरकार को डर था कि इस समय अगर उनके शव परिवार को सौंपे गए तो क्रांति भड़क सकती है। ऐसे में उन्होंने रात के अंधेरे में शवों के टुकड़े किये और बोरियों में भरकर जेल से बाहर निकाला गया। शहीदों के शवों को फिरोजपुर की ओर ले जाया गया, जहां पर मिट्टी का तेल डालकर इन्हें जलाया गया, लेकिन शहीद के परिवार वालों और अन्य लोगों को इसकी भनक लगी तो वे उस तरफ दौड़े जहां आग लगी दिखाई दे रही थी। इससे घबराकर अंग्रेजों ने अधजली लाशों के टुकड़ों को उठाया और सतलुज नदी में फेंककर भाग गये। परिजन और अन्य लोग वहां आए और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शवों को टुकड़ों को नदी से निकालाकर उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया।
शहादत के बाद भड़की चिंगारी और मिली,हमें आजादी
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत की खबर को मीडिया ने काफी प्रमुखता से छापा। ये खबर पूरे देश में जंगल की आग तरह फैल गई। हजारों युवाओं ने महात्मा गांधी को काले झंडे दिखाए। सच पूछें तो देश की आजादी के लिए आंदोलन को यहीं से नई दिशा मिली, क्योंकि इससे पहले तक आजादी के कोई आंदोलन चल ही नहीं रहा था। उस वक्त तो महात्मा गांधी समेत अन्य नेता अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, लेकिन भगत सिंह पूर्ण स्वराज की बात करते थे, जिसे बाद में अपनाया और हमें आजादी मिल सकी।
                                                                                      -  हितेश  शुक्ला 

Friday, March 20, 2015

नव वर्ष पर विशेष ...गुड़ी पड़वा , हिन्दू नववर्ष या चैत्र शुक्ल प्रतिपदा



   
चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या नववर्ष का आरम्भ माना गया है। ‘गुड़ी’ का अर्थ होता है विजय पताका । ऐसा माना गया है कि शालिवाहन नामक कुम्हार के पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों का निर्माण किया और उनकी एक सेना बनाकर उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिये। उसमें सेना की सहायता से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। इसी विजय के उपलक्ष्य में प्रतीक रूप में ‘‘शालीवाहन शक’ का प्रारम्भ हुआ। पूरे महाराष्ट्र में बड़े ही उत्साह से गुड़ी पड़वा के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। हिन्दुओं द्वारा नववर्ष के रूप में एक महत्वपूर्ण उत्सव की तरह इसे मनाया जाता है।
इसे हिन्दू नव संवत्सर या नव संवत् भी कहते हैं।इस वर्ष 21 मार्च 2015 को कीलक नामक विक्रम संवत् 2072 का प्रारंभ होगा । 21 मार्च 2015 (शनिवार) को इस धरा की 1955885115 वीं वर्षगांठ है । ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारम्भ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत् के नये साल का आरम्भ भी होता है। सिंधी नववर्ष चेटीचंड उत्सव से शुरू होता है जो चैत्र शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। सिंधी मान्यताओं के अनुसार इस शुभ दिन भगवान् झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरूण देव के अवतार हैं। 
चैत्रे मासि जगत् ब्रह्म ससर्ज प्रथमे हनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति॥ 
कहा जाता है कि ब्रह्मा ने सूर्योदय होने पर सबसे पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि की संरचना शुरू की। उन्होंने इसे प्रतिपदा तिथि को प्रवरा अथवा सर्वोत्तम तिथि कहा था। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। इस दिन से संवत्सर का पूजन, नवरात्र घटस्थापन, ध्वजारोपण, वर्षेश का फल पाठ आदि विधि-विधान किए जाते हैं।चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वसन्त ऋतु में आती है। इस ऋतु में सम्पूर्ण सृष्टि में सुन्दर छटा बिखर जाती है। विक्रम संवत के महीनों के नाम आकाशीय नक्षत्रों के उदय और अस्त होने के आधार पर रखे गए हैं। सूर्य, चन्द्रमा की गति के अनुसार ही तिथियाँ भी उदय होती हैं। मान्यता है कि इस दिन दुर्गा जी के आदेश पर श्री ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। इस दिन दुर्गा जी के मंगलसूचक घट की स्थापना की जाती है।
आज भी हमारे भारत देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोश आदि के चालन-संचालन में मार्च अप्रेल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। यह समय दो ऋृतुओं का संधिकाल माना जाता है। इसमें रात्रि छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति एक नया रूप धारण कर लेती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति नव पल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जावान हो रही हो। मानव, पशु-पक्षी यहाँ तक की जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद एवं आलस्य का परित्याग कर सचेतन हो जाती है। इसी समय बर्फ पिघलने लग जाती है। आमों पर बौर लगना प्रारम्भ हो जाता है। प्रकृति की हरितिमा नवजीवन के संचार का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ सी जाती है।
इसी प्रतिपदा के दिन आज से 2072 वर्ष पूर्व उज्जयिनी नरेश महाराज विक्रमादित्य ने विदेषी आक्रांत शकों से भारत भूमि की रक्षा की और इसी दिन से कालगणना प्रारम्भ की गई।  उपकृत राष्ट्र ने भी उन्हीं महाराज के नाम से विक्रमीसंवत् का नामकरण किया। महाराज विक्रमादित्य ने आज से 2072 वर्ष पूर्व राष्ट्र को सुसंगठित कर शकों की शक्ति का जड़ से उन्मूलन कर देश से पराजित कर भगा दिया और उनके मूल स्थान अरब में विजय की पताका फहरा दी। साथ ही साथ यवन, हूण, तुषार, पारसिक तथा कम्बोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा फहरा दी। इन्हीं विजय की स्मृति स्वरूप वर्ष प्रतिपदा संवत्सर के रूप में मनाई जाती रही और आज भी बड़े उत्साह एवं ऐतिहासिक धरोहर की स्मृति के रूप में मनाई जा रही है। इनके राज्य में कोई चोर या भिखारी नहीं था। विक्रमादित्य ने विजय के बाद जब राज्यारोहण हुआ तब उन्होंने प्रजा के तमाम ऋणों को माफ कर दिया तथा नये भारतीय कैलेण्डर को जारी किया, जिसे विक्रम संवत् नाम दिया।
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन हैद्य करीब एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 111 वर्ष पूर्व इसी दिन ब्रह्मा जी ने जगत की रचना की थी । इस दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती है । हिन्दू परम्परा के अनुसार इस दिन को ‘नव संवत्सर’ या ‘नव संवत’ के नाम से भी जाना जाता है ।
पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री के अनुसार हिंदू पंचांग के मुताबिक, इस वर्ष 21 मार्च 2015 को कीलक नामक विक्रम संवत् 2072 का प्रारंभ होगाद्य 21 मार्च 2015 को इस धरा की 1955885115 वीं वर्षगांठ है । इसी दिन ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की थी । इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नए साल का आरम्भ मानते हैंद्य हिन्दू पंचांग का पहला महीना चैत्र होता हैद्य यही नहीं शक्ति और भक्ति के नौ दिन यानी कि नवरात्रि स्थापना का पहला दिन भी यही हैद्य ऐसी मान्यता है कि इस दिन नक्षत्र शुभ स्थिति में आ जाते हैं और किसी भी नए काम को शुरू करने के लिए यह मुहूर्त शुभ होता हैद्य
सबसे प्राचीन काल गणना के आधार पर ही प्रतिपदा के दिन विक्रमी संवत् के रूप में इस शुभ एवं शौर्य दिवस को अभिषिक्त किया गया है। इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक अथवा रोहण के रूप में मनाया गया। यह दिन वास्तव में असत्य पर सत्य की विजय को याद करने का दिवस है। इसी दिन महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ था।अगर ज्योतिष की माने तो प्रत्येक संवत् का एक विशेष नाम होता है विभिन्न ग्रह इस संवत् के राजा, मंत्री और स्वामी होते हैं इन ग्रहों का असर वर्ष भर दिखाई देता है सिर्फ यही नहीं समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को ‘आर्य समाज’ स्थापना दिवस के रूप में चुना थाद्य इसी शुभ दिन महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना की थी। यह दिवस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक श्री केशव बलिराम हेडगेवार के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है। पूरे भारत में इसी दिन से चैत्र नवरात्र की शुरूआत मानी जाती है। 
वैदिक संस्कृति से जोड़ता है हमें विक्रम संवत् -
पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री के अनुसार गुलामी के बाद अंग्रेजों ने हम पर ऐसा रंग चढ़ाया ताकि हम अपने नववर्ष को भूल उनके रंग में रंग जाएद्य उन्ही की तरह एक जनवरी को ही नववर्ष मनाये और हुआ भी यही लेकिन अब देशवासियों को यह याद दिलाना होगा कि उन्हें अपना भारतीय नववर्ष विक्रमी संवत बनाना चाहिए, जो 21 मार्च 2015 (शनिवार)को है
विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति से जोड़ता हैद्य भारतीय संस्कृति से जुड़े सभी समुदाय विक्रम संवत् को एक साथ बिना प्रचार और नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं और इसका अनुसरण करते हैं दुनिया का लगभग हर कैलेण्डर सर्दी के बाद बसंत ऋतु से ही प्रारम्भ होता हैद्य यही नहीं इस समय प्रचलित ईस्वी सन वाला कैलेण्डर को भी मार्च के महीने से ही प्रारंभ होना थाद्य इस कैलेण्डर को बनाने में कोई नयी खगोलीय गणना करने के बजाए सीधे से भारतीय कैलेण्डर (विक्रम संवत) में से ही उठा लिया गया था
हिंदी  12 महीनों के नाम -
ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी द्वारा 365ध्366 दिन में होने वाली सूर्य की परिक्रमा को वर्ष और इस अवधि में चंद्रमा द्वारा पृथ्वी के लगभग 12 चक्कर को आधार मानकर कैलेण्डर तैयार किया और क्रम संख्या के आधार पर उनके नाम रखे गए हैं हिंदी महीनों के 12 नाम हैं चैत्र, बैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन
हम कैसे मनायें नव वर्ष-नव संवत्सर -
इस भारतीय और वैदिक नव वर्ष की पर हमें दीपदान करना चाहिये। घरों में घण्टा-घडियाल व शंख बजाकर मंगल ध्वनि से नव वर्ष का स्वागत करें। इष्ट मित्रों को एसएमएस, इमेल एवं दूरभाष से नये वर्ष की शुभकामना भेजना प्रारम्भ कर देना चाहिये। नव वर्ष के दिन प्रातःकाल से पूर्व उठकर मंगलाचरण कर सूर्य को प्रणाम करें। हवन कर वातावरण शुद्ध करें। नये संकल्प करें। नवरात्रि के नो दिन साधना के शुरू हो जाते हैं तथा नवरात्र घट स्थापना की जाती है।
नव वर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार को आम के पत्तों से अशोक पत्र से द्वार पर बन्दनवार लगाना चाहिये। नवीन वस्त्राभूषण धारण करना चाहिये। इसी दिन प्रातःकाल स्नान कर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल ले कर ‘ओम भूर्भुवः स्वः संवत्सर-अधिपति आवाहयामि पूजयामि च’ मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिये एवं नव वर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्माजी से प्रार्थना करनी चाहिये। हे भगवन्! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष मंगलमय एवं कल्याणकारी हो। इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाये।
नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतु काल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवाइन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग होने की संभावना नहीं रहती है तथा वर्षभर हम स्वस्थ रह सकते हैं। इतना न कर सके तो कम-से-कम चार-पाँच नीम की कोमल पत्त्यिाँ ही सेवन कर ले तो पर्याप्त रहता है। इससे चर्मरोग नहीं होते हैं। महाराष्ट्र में तथा मालवा में पूरनपोली या मीठी रोटी बनाने की प्रथा है। मराठी समाज में गुड़ी सजाकर भी बाहर लगाते हैं। यह गुड़ी नव वर्ष की पताका का ही स्वरूप है।
गुड़ी का अर्थ विजय पताका होती है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘ । आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व ‘गुड़ी पड़वा‘ के रूप में मनाया जाता है। विक्रमादित्य द्वारा शकों पर प्राप्त विजय तथा शालिवाहन द्वारा उन्हें भारत से बाहर निकालने पर इसी दिन आनंदोत्सव मनाया गया । इसी विजय के कारण प्रतिपदा को घर-घर पर ‘ध्वज पताकाएं’ तथा ‘गुढि़यां’ लगाई जाती है गुड़ी का मूल ३संस्कृत के गूर्दः से माना गया है जिसका अर्थ चिह्न, प्रतीक या पताका दृपतंग .आदि- कन्नड़ में कोडु जिसका मतलब है चोटी, ऊंचाई, शिखर, पताका आदि। मराठी में भी कोडि का अर्थ है शिखर, पताका। हिन्दी-पंजाबी में गुड़ी का एक अर्थ पतंग भी होता है। आसमान में ऊंचाई पर फहराने की वजह से इससे भी पताका का आशय स्थापित होता है।
भारत भर के सभी प्रान्तों में यह नव-वर्ष विभिन्न नामों से मनाया जाता है जो दिशा व स्थानानुसार सदैव मार्च-अप्रेल के माह में ही पड़ता है  गुड़ी पड़वा, होला मोहल्ला, युगादि, विशु, वैशाखी, कश्मीरी नवरेह, उगाडी, चेटीचंड, चित्रैय तिरुविजा आदि सभी की तिथि इस नव संवत्सर के आसपास ही आती है।
सच तो यह है कि विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाता है और कम से कम इस बात की अनुभूति तो होती है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सारे समुदाय इसे एक साथ बिना प्रचार प्रसार और नाटकीयता से परे हो कर मनाते हैं। हम सब भारतवासियों का कर्तव्य है कि पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और भारतीय कैलेण्डर विक्रम संवत् के अनुसार इस दिन का स्वागत करें। पराधीनता एवं गुलामी के बाद अंग्रेजों ने हमें एक ऐसा रंग चढ़ाया कि हम अपने नव वर्ष को भूल कर-विस्मृत कर उनके रंग में रंग गये। उन्हीं की तरह एक जनवरी को नव वर्ष अधिकांश लोग मनाते आ रहे हैं। लेकिन अब देशवासी को अपनी भारतीयता के गौरव को याद कर नव वर्ष विक्रमी संवत् मनाना चाहिये 
क्या करें नव-संवत्सर के दिन (गुड़ी पड़वा विशेष)-
घर को ध्वजा, पताका, तोरण, बंदनवार, फूलों आदि से सजाएँ व अगरबत्ती, धूप आदि से सुगंधित करें।
-दिनभर भजन-कीर्तन कर शुभ कार्य करते हुए आनंदपूर्वक दिन बिताएँ।
सभी जीव मात्र तथा प्रकृति के लिए मंगल कामना करें।
नीम की पत्तियाँ खाएँ भी और खिलाएँ भी।
ब्राह्मण की अर्चना कर लोकहित में प्याऊ स्थापित करें।
इस दिन नए वर्ष का पंचांग या भविष्यफल ब्राह्मण के मुख से सुनें।
इस दिन से दुर्गा सप्तशती या रामायण का नौ-दिवसीय पाठ आरंभ करें।
इस दिन से परस्पर कटुता का भाव मिटाकर समता-भाव स्थापित करने का संकल्प लें।
इतिहास में वर्ष प्रतिपदा -
1.         ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का सृजन
2.         मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक
3.         माँ दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारम्भ
4.         युगाब्द (युधिष्ठिर संवत्) का आरम्भ
5.         उज्जयिनी सम्राट- विक्रामादित्य द्वारा विक्रमी संवत् प्रारम्भ
6.         शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्ट्रीय पंचांग)
7.         महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना
8.         राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक परम पूजनीय सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार जी का जन्मदिन

आप सभी को नव वर्ष की अनेक-अनेक शुभकामनाएँ । यह वर्ष भारतीयों के लिये ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये भी सुख, शांति एवं मंगलमय हो।
-                                                                                                                                                                                                                                                 -हितेश शुक्ला